राजा धर्ममृते द्विज: पवमृते विद्यामृते योगिन:,
कान्ता सत्वमृते हयो गतिमृते भूषा च शोभामृते।
योद्धा शूरमृते तपो वृतमते गीतं च पद्यान्यृते,
भ्राता स्नेहमृते नरो हरिमृते लोके न भाति क्वचित्।।
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भावार्थ- धर्म रहित राजा, पवित्रता रहित ब्राह्मण, ब्रह्मविद्या रहित योगी, सतीत्व रहित स्त्री, गति रहित घोडा, सुन्दरता रहित आभूषण, वीरता रहित योद्धा, व्रत रहित तप, पद्य रहित गान, स्नेह रहित भाई और भगवत्प्रेम रहित मनुष्य संसार मे कहीं भी शोभा नहीं पाते।