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मेहरबानी करके चुपचाप पौधे लगाएं और चार-छह साल बाद बताएं कि अब वे कितने ऊंचे हो रहे हैं....!



विजयमनोहर तिवारी
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"एक पेड़ माँ के नाम' एक ऐसा भावभरा आव्हान है, जिसमें कोई दावे दिखाई नहीं दिए हैं। बड़े-बड़े भाषण नहीं सुने हैं। कोई असंभव सा आंकड़ा किसी ने पटका नहीं है। संस्थाएं और समाज में लोग अपनी सामर्थ्य से पौधे लगा रहे हैं। "भारत स्वच्छता अभियान' के बाद मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री की इस पर्यावरण पहल के अंकुरण भी देश भर में प्रभावी रूप से सामने आएंगे…
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पिछले कुछ सालों में लाखों-करोड़ों पौधे लगाने के इतने "महाविकट' अभियान चल चुके हैं कि धरती भी हाहाकार कर रही होगी। अगर आधे पौधे भी हरियाली में बदले तो तय मानिए कि नर्मदा नदी समेत यह पूरा प्रदेश तो जंगलों में गुम हो जाना था। दावेदारों को जरा भी नहीं लगता कि आम लोगों को भी परमात्मा ने देखने लायक दो आँखें दी हैं और सोचने लायक दिमाग। गनीमत है कि प्रचारों में लगे पौधे पोस्टरों, परचों और होर्डिंगों में ही लगकर सूख गए। हाँ यह शोध का विषय है कि कितनी नर्सरियों को इन कागजी पौधों के भुगतानों ने हरा-भरा किया होगा! 

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के नए परिसर में बीती गर्मी में वानिकी विशेषज्ञ सुदेश वाघमारे ने अपनी टीम के साथ 50 एकड़ में फैले उन स्थानों को चिन्हित किया, जहाँ हरियाली विकसित करने की थोड़ी सी भी संभावना है। तीन हफ्ते की मेहनत के बाद उन्होंने बताया कि हम 6000 छायादार और फलदार वृक्षों के पौधे लगा सकते हैं। हमने पहले चरण में 1111 पौधे रोपने की तैयारी जून में शुरू की। गड्डे किए। जैविक खाद मंगाई। किस कतार में किस नस्ल के पौधे लगेंगे, इसकी सूचियाँ बनाईं। हमने दो साल के विकसित अच्छी सेहत के थोड़े बड़े पौधे लिए ताकि उनके सूखने की संभावना न्यूनतम हो। सूखे मौसम में पानी के लिए ड्रिप सिस्टम के हिसाब देखे। एक टीम ने काम बांटकर बारिश से पहले सारी तैयारियाँ पूरी कर ली थीं। 

प्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री इंदरसिंह परमार विश्वविद्यालय की महापरिषद के सदस्य भी हैं। एक छोटे से आग्रह पर वे खूब समय निकालकर आए। अपने अनुभव बांटे और पूरे स्टाफ के साथ पौधे लगाए। वे पहली बार ही आए थे इसलिए तसल्ली से परिसर का अवलोकन किया। कुछ महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए। विधायक भगवानदास सबनानी के विधानसभा क्षेत्र में देश का सबसे बड़ा मीडिया विश्वविद्यालय ही नहीं है, राजभवन क्षेत्र से लेकर श्यामला हिल्स तक उनके कवरेज एरिया में प्रदेश के सारे "पावर हाऊस' हैं। दो शब्द कहने और एक पौधा उन्हें लगाने आना ही था। दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान के निदेशक डॉ. मुकेश कुमार मिश्रा समेत अनेक पर्यावरणप्रेमियों ने भी पहले दिन पहले-पहले पौधे रोपे।

मैंने उन्हें बताया कि फरवरी मध्य में विश्वविद्यालय में आने के ठीक पहले मैं डेढ़ साल से एक गाँव में रहकर यही काम कर रहा था, जहाँ हमने कुल 3000 पौधे लगाए थे। अब वे हरेभरे वृक्ष बन चुके हैं। इनमें 2500 थाई अमरूद के हैं। पाँच सौ सागवान के हैं। कुछ सूखे तो हमने फिर लगाए। विशेषज्ञों की देखरेख में काम करने यह थोड़ा सा अनुभव अगर आने वाले सालों में वृक्षों के रूप में विश्वविद्यालय में दिखता है तो आज का दिन सफल मानेंगे। अच्छी बात यह है कि परिसर चारों ओर से सुरक्षित है। आवारा पशुओं से बचा हुआ है। हमें केवल सूखे मौसम में थोड़ा पानी देते हुए देखते रहना होगा और ये पौधे 50 एकड़ के भव्य परिसर को प्राकृतिक सजधज दे देंगे।

हमारा कोई दावा नहीं है। कोई प्रचार नहीं है। हमने अपने आसपास खाली भूमि पर अपनी सामर्थ्य के अनुसार एक विशेषज्ञ की सहायता से पौधों का चुनाव किया और विश्वविद्यालय की दक्ष टीम ने पूरा काम अपने हाथ में लेकर आज से "एक पेड़ माँ के नाम' रोपने के राष्ट्रव्यापी पर्यावरण यज्ञ में अपनी आहुति आरंभ की। हरियाली अमावस तक हमारे विद्यार्थी, शहर के प्रबुद्ध नागरिक, कवि-लेखक, संपादक-पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता सब यह क्रम जारी रखेंगे।  
 
यह प्रकृति का श्रृंगार है। समय की आवश्यकता है। हर कोई अपने आंगन में, पार्क में, खेतों और जंगलों के खाली हिस्सों में इस बारिश में पौधे केवल लगाए ही नहीं, साल-दो साल देखरेख भी कर ले तो यह पहल सरकारी नहीं, असरकारी होने से कोई रोक नहीं सकता। मेरे देखे यह "भारत स्वच्छता अभियान' जैसा प्रभावशाली होने वाला है। बस बड़ी-बड़ी बातें न करें। भाषण तो बिल्कुल न दें। लोग सब जानते हैं। देखते भी हैं और सुनते भी हैं। इसलिए मेहरबानी करके चुपचाप पौधे लगाएं और चार-छह साल बाद बताएं कि अब वे कितने ऊंचे हो रहे हैं…।

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