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भक्त को भगवान को खोजना नहीं पड़ता.... भगवान स्वयं उसे खोज लेते हैं...!


ब्रज के भक्त - काम्यवन के श्रीजयकृष्णदास बाबाजी

भक्त को भगवान् को खोजना नहीं पड़ता। भगवान् स्वयं उसे खोज लेते हैं। भक्त जितना भगवान् के दर्शन की इच्छा करता है, उससे कहीं अधिक भगवान् उसके दर्शन के लिए उतावले रहते हैं। भक्त जितना भगवान् को प्राप्त कर मन और प्राण से उनकी सेवा करने के लिए उत्सुक रहता है, उससे कहीं अधिक भगवान् उसकी सेवा ग्रहण करने को लालायित रहते हैं। भक्त की प्रेम-सेवा में भगवान को जो सुख मिलता है, वह उन्हें वैकुण्ठ में भी नहीं मिलता। तभी तो वे श्रीविग्रह रूप में इस लोक में आते हैं भक्तों की सेवा ग्रहण करने।

पर इस लोक में आकर भी उनका मिलकर बिछुड़ जाने और बिछुड़कर मिल जाने का स्वभाव नहीं छूटता। लुका-छिपी का खेल उन्हें चिरकाल से प्रिय है। इस खेल में भक्तों पर जो बीतती है उसे उनके सिवा और कौन जानता है? वे जब मिलते हैं तो हठात् मिलते हैं, अनायास मिलते हैं, बिना बुलाये मिलते हैं; बिछुड़ते हैं तो हठात् बिछुड़ते हैं, बिना नोटिस दिये, बिना रहम किये, बिना चिरौरी-विनती का या कुछ कहने-सुनने का अवसर दिये। उनके लिए तो इस लुका-छिपी में लाभ-हानि बराबर का होता है; क्योंकि वे एक से बिछुड़ते हैं, दूसरे से मिलते हैं; पर जिस भक्त से बिछुड़ते हैं, उसका सर्वस्व लुट जाता है।

आज भी वे स्वतन्त्रतापूर्वक दो भक्तों से लुका-छिपी खेल रहे हैं। एकसे मिलने के लिए बंगाल से ब्रज तक की लम्बी यात्रा करके आये हैं; दूसरे को ब्रज से बंगाल वापस भेजने को उत्सुक हैं। एक की सेवा त्याग रहे हैं, दूसरे की ग्रहण करने को उतावले हो रहे हैं। जिनसे बिछुड़ रहे हैं, वे हैं श्रीनित्यानन्द प्रभु के वंशज, ढाका के श्रीलक्ष्मीकान्त प्रभु के पुत्र, श्रीनवलकिशोर गोस्वामी, जिनसे मिल रहे हैं, वे हैं काम्यवन के श्रीजयकृष्णदास बाबाजी महाराज।

श्रीनवलकिशोर गोस्वामी आये थे ब्रज-दर्शन करने अपने ठाकुर श्रीराधा-मदनमोहन को साथ लेकर । जा रहे हैं, कुछ दिन श्रीजयकृष्णदास बाबा की भजन कुटी में रहने के पश्चात् अपने प्राणधन को छोड़कर। गत रात्रि श्रीराधा-मदनमोहन ने स्वप्न में आज्ञा की थी- 'मैं तुम्हारी सेवा से परितुष्ट हूँ। अब इन बाबाजी की सेवा ग्रहण करूँगा। इस स्थान से नहीं जाऊँगा।' विदा होते समय श्रीनवलकिशोर गोस्वामी अश्रु-विसर्जन कर रहे हैं अपने हृदयधन को अनायास खो देने के कारण; श्रीजयकृष्णदास बाबा अश्रु-विसर्जन कर रहे हैं अपने हृदय धन को अनायास, अयाचित्त रूप से प्राप्तकर आनन्द में न समा सकने के कारण। श्रीराधा-मदनमोहन इस दृश्य को देख रहे हैं चुपचाप, अनोखी विवशता के कारण !

श्रीराधा-मदनमोहन और उनके सेवक श्रीजयकृष्णदास बाबा काम्यवन में अब आनन्दपूर्वक रहने लगे। कुछ दिन पश्चात् श्रीराधामदनमोहन की इच्छा से एक अल्पवयस्क बाबाजी भी आ गये और जयकृष्णदास बाबा के पास रहकर श्रीराधामदनमोहन की सेवा में उनका हाथ बंटाने लगे। जयकृष्णदास बाबा उनके विनीत व्यवहार और सेवा-परिचर्या से इतना प्रसन्न हुए कि उन्हें रागानुगा भजन की शिक्षा देने का सङ्कल्प किया। उन्होंने उनसे पूछा- 'तुम्हारी गुरु-प्रणालिका है?'

नववयस्क बाबाजी ने कहा- 'मैं नहीं जानता गुरु-प्रणालिका किसे कहते हैं। मैंने गुरुदेव से इसके सम्बन्ध में कभी नहीं पूछा।'

जयकृष्णदास बाबा ने समझाते हुए कहा- 'रागानुगा मार्ग के गुरु शिष्य को गुरु-प्रणालिका दिया करते हैं। गुरु-प्रणालिका में शिष्य की गुरु-परंपरा होती है, उसके गुरु, परमगुरु, परात्पर गुरु आदि के नाम होते हैं। गुरु-प्रणालिका के साथ गुरुदेव सिद्ध-प्रणालिका भी दिया करते हैं। सिद्ध प्रणालिका में रहता है शिष्य और गुरुवर्ग के सिद्ध-देहों और उनके वर्ण, वयस, वेशभूषा, सेवादि का वर्णन। सिद्ध-गुरुदेव के आनुगत्य में उनके कृपादत्त सिद्धगोपीरूपा मंजरी-देह से राधाकृष्ण की सेवा करने का नाम है- रागानुगा भजन । इस प्रकार का भजन ही राधा-कृष्ण की प्रेम-सेवा प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है। यह भजन गुरु-प्रणालिका के बिना सम्भव नहीं है। मैं तुम्हें इसकी शिक्षा देना चाहता हूँ। तुम्हें एक बार देश जाकर गुरुदेव से गुरु-प्रणालिका प्राप्त करनी होगी।'

छोटे बाबा थोड़े ही दिनों में श्रीजयकृष्णदास बाबा के स्निग्ध व्यवहार और उनके मधुर संग से इतना मुग्ध हो गये थे कि रागानुगा भजन का लोभ जागने पर भी उन्हें छोड़कर देश जाने के विचार ने उन्हें अधीर कर दिया। वे रोने लगे। श्री जयकृष्ण दास बाबा ने लीला-माधुर्य और रागानुगा-भजन-माधुर्य का बार बार वर्णनकर किसी प्रकार छोटे बाबा को शान्त किया और गुरु-प्रणालिका लाने के लिए गौड़मण्डल जाने को राजी किया।

उस समय मथुरा में रेल नहीं थी। गौड़मण्डल जाने के लिए हाथरस होकर जाना पड़ता था। एक दिन प्रातः जयकृष्ण दास बाबा ने छोटे बाबा को बड़े कष्ट से विदा किया। छोटे बाबा रोते-रोते जाने लगे। उन्हें हाथरस जाकर रात्रि में गाड़ी पकड़नी थी।। वे जानते थे कि गाड़ी पर बैठते ही उनके प्राण-पखेरू उड़ जायेंगे। गाड़ी पर बैठें तो मृत्यु, न बैठें तो बाबा की आज्ञा का उल्लंघन करने में मृत्यु। दोनों प्रकार से मृत्यु को निश्चित जान वे कातर स्वर से राधारानी और वृन्दावन देवी को पुकारकर कहने लगे- 'हे राधारानी ! हे वृन्दे ! तुम निश्चय ही मेरी अवस्था को जान रही हो। फिर क्यों अपनी शरण में आये इस दीन-हीन, असहाय सेवक को अपने चरणों से ठेल रही हो? कृपा करो करुणामयी कि गाड़ी पर बैठने की अशुभ घड़ी आने के पहले ही मेरे प्राण निकल जायँ ।'

राधारानी ने छोटे बाबा की पुकार सुन ली। उन्हें गाड़ी पर चढ़ना नहीं पड़ा। गाड़ी छूट गयी और बाबा ने लौट जाने का सङ्कल्प किया। इधर रात्रि में वृन्दादेवी ने जयकृष्णदास बाबा को स्वप्न में डाँट लगायी। उन्होंने कहा- 'तूने क्यों उसे बाहर भेज दिया जब उसकी गुरु-प्रणाली तेरे ठाकुर के सिंहासन के नीचे ही रखी है?'

जयकृष्णदास बाबा की निद्रा भंग हई। वे रो-रोकर वृन्दादेवी से क्षमा प्रार्थना करने लगे। शीघ्र स्नानकर मन्दिर में गये। गुरु-प्रणाली सिंहासन पर रखी देख भाव-विह्वल हो गये। उसे उठाकर बार-बार छाती से लगाने लगे। बन्दादेवी की कृपा का स्मरण करते हुए बाह्य संज्ञा-हीन हो गये। कुछ सुस्थ हो श्रीगोविन्दजी के मन्दिर गये। वहाँ वृन्दादेवी के दर्शन कर उनसे बार-बार प्रार्थना की छोटे बाबा को फिराकर ले आने की। फिर कुटिया पर लौटकर दैनिक सेवा-कार्य करने लगे: पर मन छोटे बाबा में लगा रहा। 'वह तो कल रात गाडी पर बैठ गया होगा। गाडी बहुत दूर निकल गयी होगी। वह कितना रो रहा था जाते-जाते। क्या जाने उसके आँसू अभी थमे होंगे या नहीं। मैंने कितना अपराध किया है उसे बरबस व्रज के बाहर भेजकर ।' वे यह सोचते जाते और आँसू पोंछते जाते। अनुताप में सारा दिन बीत चला। उन्होंने अन्न-जल कुछ भी ग्रहण नहीं किया।

संध्या के कुछ पूर्व हठात् छोटे बाबा को आते देख वे आनन्दोल्लसित हो चौंक पड़े। छोटे बाबा भूख-प्यास, पथश्रम और बड़े बाबा की आज्ञा-लंघन के भय से कातर हो रहे थे। वे रोते-रोते उनके चरणों में गिर पड़े। बाबा ने उन्हें वक्ष से लगाकर नयन-जल से अभिषिक्त करते हुए पूछा- 'कैसे लौट आये?' छोटे बाबा ने अपने हृदय की सारी बात कहकर आज्ञा-लंघन के अपराध के लिए कातर भाव से क्षमा माँगी। बाबा ने वृन्दादेवी की कृपा का सारा वृत्तान्त सुनाकर छोटे बाबा को आश्वस्त किया। छोटे बाबा वृन्दादेवी की कृपा का स्मरण कर आनन्दाश्रु विसर्जन करने लगे।

इस घटना के बाद से बाबा व्रज में सिद्ध जयकृष्णदास बाबा के नाम से प्रसिद्ध हुए। वे व्रज में कब आये ? कहाँ से आये ? उनके गुरू कौन थे ? इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इतना भर निश्चित है कि वे श्रीश्रीगंगामाता गोस्वामिनी के परिकर के थे। काम्यवन में वृन्दादेवी के आदेश से विमलाकुण्ड के तीर पर रहकर भजन किया करते थे। कुछ दिन बाद वहाँ के गोप-बालक उन्हें परेशान करने लगे। वे कहीं अन्यत्र जाकर भजन करने का विचार करने लगे। यह देख ग्राम-वासियों ने एक कुटिया बनवा दी। उसमें रहकर वे हर समय भजन में लीन रहते। केवल एक बार मधुकरी के लिए ग्राम में जाया करते। रात-दिन हरिनाम जपते। सोते एक मिनट को भी नहीं ! पाठक विश्वास भले ही न करें, पर इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। सोना और जागना तो शरीर का धर्म है। जिन महात्माओं की स्थिति अपने सिद्ध स्वरूप में हो जाती है, उनके लिए क्या सोना, क्या जागना! बाबा रात भर प्रिया-प्रियतम की याद में अश्रु-विसर्जन करते, चीखते-पुकारते, विनय और आक्षेप सहित भाव-भीनी उक्तियों से उनकी अर्चना करते और कभी-कभी प्रेमावेश में ऐसी हंकार भरते कि दिशाएँ विकम्पित हो जातीं। प्रसिद्ध है कि एक बार उनकी हंकार से कूटिया की छत फट गयी, जो आज भी देखने में आती है।

सिद्ध जयकृष्णदास बाबा में ऐसी चुम्बकीय शक्ति थी कि लोग दूर-दूर से उनके पास खिंचे चले आते थे। जो एक बार उनका संग कर लेता था उसके लिए उन्हें छोड़ना असम्भव हो जाता था। श्रीश्रीराधा-मदनमोहन और छोटे बाबा के सम्बन्ध में तो हम उनकी इस शक्ति का परिचय पा ही चुके हैं। और भी न जाने कितने लोगों के साथ इस प्रकार की घटनाएँ घटीं। एक बार राधाकुण्ड के श्रीजगदानन्ददास पंडित बाबा के वेश-गुरु, फरीदपुर जिले के रामदिया ग्राम के महन्त श्रीभगवानदास बाबाजी उनके पास आये कुछ दिन उनके दिव्य संग का लाभ उठाने के उद्देश्य से। दोनों में परस्पर ऐसी प्रियता हो गयी कि जब कभी महन्त जी के जाने का प्रसङ्ग आता तो दोनों मूच्छित हो जाते। एक मास बाद बहुत कष्ट से वे काम्यवन से बिदा हो सके ।

काम्यवन उस समय भरतपुर के राजा के अधीन था। राजा ने सिद्ध बाबा के दर्शन करना चाहा। बहुत चेष्टा करने पर भी उनका मनोरथ सफल न हुआ, क्योंकि बाबा विषयी पुरुषों को अपने निकट नहीं आने देते थे। तब वे एक दिन भेष बदलकर दीन-हीन भाव से उनकी कुटिया के सामने जा बैठे। उस समय बाबा मधुकरी के लिए गाँव में गये हुए थे। गाँव से लौटते समय आधे रास्ते तक आकर वे फिर गाँव की तरफ लौट गये। गांव में चीख-चीखकर कहने लगे-'बन्धुओ ! मेरी कुटिया में आग लगी है! जाकर बुझा आओ, तब मैं जाऊँगा।'

बाबा गाँव में बैठे रहे। गाँव के लोग दौड़े गये कुटिया पर। देखा कि कुटिया में आग-वाग तो लगी नहीं है, पर वहां छद्मवेश में राजा बैठे हैं। वे समझ गये बाबा की बात। उन्होंने विनीत भाव से राजा को सब कुछ समझाते हुए कहा- 'महाराज ! राज-हठ से योगी-हठ बहुत बलवान होता है।' राजा भीत और विषण्ण हो लौट गये। तब बाबा आये और गोबर-जल से स्थान को पवित्र कर भजन के लिए बैठे। राजा वैष्णव-सेवी थे, इसलिए उन्होंने बुरा नहीं माना। इस घटना से उनमें दैन्य और निर्वेद का उदय हुआ और उन्होंने परोक्षरूप से बाबा की कृपा भी प्राप्त की।

एक दिन मध्याह्न में सिद्ध बाबा की अन्तरंग सेवा में ऐसी घटना घटी कि वे श्रीकृष्ण-विरह में व्याकुल होने लगे। उस समय विमलाकुण्ड के चारों ओर असंख्य गाय और गोपबालक आकर उपस्थित हुए। गोपबालक बाहर से चीखकर कहने लगे-'बाबा प्यास लगी है, जल प्याय दे।' बाबा तो पहले ही ग्वारिया बालकों के उत्पात से विरक्त थे। वे चुपचाप कुटिया में बैठे रहे। पर बालक कब मानने वाले। लगे तरह-तरह के उत्पात करने। कुटिया के दरवाजे के पास आकर वोले- 'बंगाली बाबा ! हम जाने है तू कहा भजन करे है। दयाहीन बाबा कसाई के बराबर होय है। अरे, कुटिया से निकलकें जल प्याय दे। हमनको बडी प्यास लगी है।' बाबाजी क्रुद्ध हो लकड़ी हाथ में ले बाहर निकल पड़े। सामने दीखे असंख्य गो और गोपबालक ! सब एकसे एक सुन्दर ! एकसे एक अद्भुत ! उन्हें देखते ही उनका क्रोध ठंडा पड़ गया। उन्होंने पूछा-

'लाला ! तुम कौन गाँव से आये हो ? '

'नन्दगाँव तें।' बालकों ने उत्तर दिया।

'तेरा नाम क्या है?' एक बालक से उन्होंने पूछा।

'कन्हैया'।

'लाला, तेरा नाम ?' एक और बालक से पूछा।

'बलदाऊ'।

तब बालकों ने कहा- 'देख बाबाजी, पहिले जल पियाय दे, पाछे बात करियो।'

बाबा ने स्नेह परवश हो करुवे से जल पिला दिया।

बालक बोले- 'देख बाबा, हम नित्य कितेक दूर ते आमें हैं, प्यासे चले जायँ हैं। तू कछु जल और बालभोग राख्यो कर।

'नहीं बाबा ! रोज-रोज उपाधि नहीं करना।' कहते हुए बाबा कुटिया में चले गये।

कुटिया में जाकर सोचने लगे- 'ऐसे अद्भुत गोपबालक और ऐसी गायें तो मैंने कभी देखी नहीं ! न कभी ऐसी मधुर बोली ही सुनी ! यह लोग इस जगत् के थे या किसी और जगत्के !' यह सोचते हुए उन्हें एक बार फिर देखने को वे जैसे ही कुटिया से बाहर निकले, वहाँ न गायें थीं, न गोपबालक ! बाबा दुःखित और अनुतप्त हो अपने दुर्भाग्य और गोपबालकों के प्रति अपने अन्तिम वाक्य की बात सोचते-सोचते आविष्ट हो गये। उस अवस्था में श्रीकृष्ण उनके सामने उपस्थित हो उन्हें सान्त्वना देते हुए बोले- 'बाबा दुःख मत करै। कल मैं तेरे पास आऊँगो ?' तब बाबा का आवेश भंग हुआ और उन्होंने धैर्य धारण किया।

दूसरे दिन एक वृद्धा व्रजमाई आयी एक गोपाल-मूर्ति लेकर। बोली-'बाबा, मोते अब गोपाल की सेवा नाय होय। तू सेवा कियौ कर।'

'मैं कैसे इनकी सेवा करूँगा? सेवा की सामग्री कहाँ से लाऊँगा ?' बाबा ने कहा।

'सेवा की सामग्री मैं रोज दे जाऊँगी' कहती हुई वृद्धा चली गयी। 

गोपालजी की माधुरी देख बाबा मुग्ध हो गये। उसी रात स्वप्न में वृद्धा वृन्दाजी के रूप में उन्हें दर्शन दिये।

गोपाल की उलटी रीति है। कभी कोई बुलाता है, तो भी उसके पास नहीं जाते। कभी कोई नहीं भी बुलाता तो उसके पास जाते हैं. उसके उपेक्षा करने पर भी जाते हैं। ऋषि, मुनि, यति बुला-बुलाकर हार जाते हैं। उनके मानस-पटल पर भी कभी उदय नहीं होते। पर उनके भक्त, उन्हें नहीं भी बुलाते तो हाथ धोका उनके पीछे पड़ जाते हैं। सिद्ध बाबा ने उनके आने को उपाधि मानकर कल उनसे यही कहा था न, 'रोज-रोज आकर उपाधि नहीं करना।' इसीलिए आज उनके पास आ ऐसे जमकर बैठे हैं कि जाने का नाम ही नहीं लेते।

कुछ दिन प्रेम से गोपालजी की सेवा कर सिद्ध बाबा ने चैत्र शुक्ला द्वादशी को पार्थिव शरीर छोड़कर अपार्थिव शरीर से नित्य-लीला में प्रवेश किया। कदाचित् किसी की बांसुरी की ध्वनि सुनकर उनसे रहा न गया और लहँगा-फरिया पहन उन्होंने अभिसार किया। उनके अन्तिम शब्द यही थे- 'मेरे लहँगा कहाँ? फरिया कहाँ ? अँगिया कहाँ ?'

गोपाल ! एक बात पूछूं तुमसे, बताओगे ? तुम मधुकर की तरह उड़कर आये बंगाल से श्रीराधा-मदनमोहन रूप में बाबा का प्रेम-सेवा-रस आस्वादन करने। इतने दिन उस रस का आस्वादन करके भी तुम्हारी तृष्णा न मिटी, तो एक और रूप में घुस पड़े उनकी कुटिया में। यदि तुम बाबा की सेवा-शक्ति को अपनी तरह असीम जानते, तो शायद अनन्तरूप धारणकर अनन्त प्रकार से उनकी प्रेम-सेवा का आस्वादन करके भी न अघाते। ऐसी कौन-सी बात थी उस लँगोटीवाले बाबा में जिस पर तुम इतना रीझ गये ?

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