हाल ही में जारी इस विज्ञापन को देखकर मन विषाद से भर गया। इसकी डिज़ाइनिंग और भाषा इतनी अपरिपक्व है कि मानो किसी मिडिल स्कूल के छात्र ने अभ्यास के लिए बना दिया हो। प्रस्तुति में न तो गरिमा है, न ही पेशेवर समझ। न ही कुलपति जी की तस्वीर का औचित्य।
सागर विश्वविद्यालय के इन हालातों को देखकर मन दुखी हो जाता है। यह वही संस्थान है जो कभी उच्च शिक्षा की गुणवत्ता, अनुशासन और विद्वत्ता के लिए देशभर में जाना जाता था — आज वही विश्वविद्यालय औसत दर्जे के एक सामान्य संस्थान की छवि में सिमट गया है।
केंद्रीय विश्वविद्यालय बनने के बाद शैक्षणिक अधःपतन जिस तेज़ी से हुआ है, वह सचमुच पीड़ादायक है। इमारतें तो खड़ी कर दी गईं, लेकिन उनमें ज्ञान, गरिमा और विद्वत्ता का अभाव साफ दिखता है।
मेरे हिसाब से यह विज्ञापन दरअसल उस “अधकचरेपन और अयोग्यता” का प्रमाण है जो अब संस्थान के भीतर पनप रही है। आज जब संस्थान के भीतर ‘’औसतपन और चाटुकारिता’’ को ही सफलता की परिभाषा बना दिया गया है, तो सोचिए विद्यार्थियों को क्या दिशा मिल रही होगी।
डॉ. हरिसिंह गौर जैसे महान शिक्षाविद् की कल्पना और परिश्रम से खड़ा हुआ यह संस्थान जब केंद्रीय विश्वविद्यालय बना, तब आशा थी कि इसकी प्रगति और व्यापक होगी। लेकिन हुआ इसके विपरीत — शैक्षणिक अधःपतन, प्रशासनिक भ्रम और शून्य नेतृत्व ने इसकी आत्मा को ही घायल कर दिया।
मेरा दृढ़ विश्वास है कि विश्वविद्यालय के संस्थापक डॉ. सर हरिसिंह गौर यदि आज यह सब देखते, तो उनकी आत्मा अवश्य व्यथित होती।
श्रद्धेय गौर बब्बा, हमें माफ करना। हम, जो आपके इस पावन शिक्षाकेंद्र से पढ़कर निकले हैं, आपकी ज्ञान परंपरा और उच्च आदर्शों की रक्षा नहीं कर सके।