विधुलता गोस्वामी
पत्रकारिता में इतना रुपया कभी मिला ही नहीं कि मन के शौक पूरे होते, शौक था भी तो सिर्फ लिखने पढ़ने का ही बाकी तो दुनिया के झमेलों में मन के भीतर ही दब गए वो बहुत कठिन दौर था लिखने छपने का , कोई भी रिपोर्ट तैयार करने के बाद हर हाल लालसा थी छपने की, तब खूब लिखा देश भर के अखबारों में। तब छपना ही बड़ी बात थी ,संचार क्रांति का नामो निशान न था, कोई सुविधा नहीं बच्ची को घर में छोड़कर काम करना, तब आज की तरह लाखों करोड़ों का पैकेज लेने वाली बड़ी बड़ी बड़ बोली फैंसी महिलाएं न प्रिंट ना इलेक्ट्रानिक मीडिया में भी नहीं थी बाजारवाद नहीं था, सारे मूल्यों को ताक पर रख गॉड फादर के पीछे चलने वाली पत्रकार भी नहीं। मूल्यों की पत्रकारिता थी नेताओं और अन्य समाज के वर्ग में पत्रकारों के लिए सम्मान था और उसी में असीम संतुष्टि थी। इसी बीच एक बार स्व विद्याचरण शुक्ल का इंटरव्यू करते हुए उन्होंने कहा था पत्रकारिता का फील्ड चुनौती भरा है बेटा। उस वक्त मेरी कम उम्र थी और स्त्री होते हुए यह चुनौती ज्यादा है अपनी लाइन से कभी नहीं डिगना। चाहे रुपया कम मिले लेकिन एक दिन संतुष्टि जरूर मिलेगी। उन्होंने जो बात कही सही साबित हुई ,लेकिन फिर भी सच्चाई यह है कि बढ़ती महंगाई और बढ़ते खर्च के साथ दुनियादारी निभाते हुए बच्ची की पढ़ाई सब कुछ बमुश्किल ही होता रहा, किंतु संतुष्टि हमेशा रही, पहले हमीदिया आर्ट्स एवं कॉमर्स कॉलेज में एड हॉक लेक्चरर शिप फिर एम वी एम में फिर एक राजनैतिक पत्रिका में असिस्टेंट एडिटर का काम बड़े चाव और मुस्तैदी से किया, लेकिन रुपया फिर भी कम था काम और मेहनत ज्यादा। इन सबके चलते कभी पेंटिंग का भी शौक था, जो रह रह कर सर उठाता रहा लेकिन नहीं कर पाई बहुत कठिन था ,फिर कत्थक सीखा दो वर्ष जैसे तैसे समय की किल्लत के बीच लेकिन कैल्शियम डिफिशिएंसी के चलते पांवों की तलकीफ बढ़ी और छोड़ना पड़ा , और भी रोजमर्रा के शौक, जो कभी पूरे हुए कभी नहीं और कभी आधे अधूरे रहे, काम के साथ बेटी बड़ी हुई उसकी पढ़ाई लिखाई पर केंद्रित होना पड़ा, बहुत कुछ छूट गया और फिर वो यू एस ए में कंस्ट्रक्शन मैनेजमेंट में इंजीनियरिंग करते हुए वहीं जॉब में आ गई ,तो फिलहाल मेरे सारे शौक पूरे करने में जुटी हुई है ,कहती है मां जो करना है करो बस मुझे बताते जाओ ,तो यह भी मेरी खुश किस्मती है ,जीवन में फिर से गहरे हल्के रंग वो भर रही है ,और इन दिनों ज्यादा कॉन्फिडेंस से भरपूर हूं ,जान गई हूं रुपया जिंदगी की सबसे बड़ी और जरूरी चीज है ,लेकिन उससे पहले और बड़े है अपने कर्तव्य जिसे पूरा करना बड़ी चुनौती है।
तो बोनसाई का शौक शुरू से था कुछ छुटपुट बनाए, फिर बच्ची के बड़े होने तक पौधे पेड़ बोनसाई की संख्या भी घर में बढ़ती रहीं, बनाते बनाते एक परिपक्वता आ गई , कभी चित्रकारी का शौक था लेकिन सब्जेक्ट के रूप में नहीं पढ़ पाई तो अब बोनसाई में कई लैंड स्केप बनाए है और कई नए प्रयोग भी किए मैने ,बोनसाई एक खर्चीला शौक है और ज्यादा मेहनती भी लेकिन शौक है तो बनाती रहती हूं और थकती भी नहीं।