हनुमान जी ने चलते-चलते सभी वानर-भालुओं को प्रणाम किया। जैसे ही वानर-भालुओं ने हनुमान जी को प्रणाम करते हुए देखा तो कुछ वानर बोले कि अरे! हनुमान जी,आप ये क्या कर रहे हैं? आप हमसे श्रेष्ठ हैं, आप हमसे गुणी, ज्ञानी और सामर्थ्यवान है और फिर इस समुद्र को पार करके लंका जाने का जोखिम भी आप ही उठा रहे हैं इसलिए आप सर्व समर्थ होकर हम असमर्थ वानरों को प्रणाम क्यों कर रहे हैं? हनुमान जी बोले कि भाई! न कोई समर्थ है और न कोई असमर्थ, ये तो प्रभु की लीला है कि वह ज़ब चाहे जिसे समर्थ कर दें। चूँकि प्रभु ने इस कार्य के लिए मुझे चुना है इसलिए मैं आपको समर्थ दिखाई दे रहा हूँ पर मैं कुछ भी नही हूँ, सब प्रभु की इच्छा और कृपा का प्रभाव है।
इसी बात को महादेव भी माता पार्वती से कहते हैं कि पार्वती न कोई ज्ञानी है, न कोई अज्ञानी, ये तो प्रभु की लीला है कि ज़ब जिसे चाहें वैसा बना दें।
बोले बिहँसि महेस तब , ज्ञानी मूढ़ न कोय।
जेहिं जस रघुपति करहिं जब,सो तस तेहिं छन होय।।
अतः इस प्रसंग से शिक्षा मिलती है कि ज़ब भी हमें कोई सामर्थ्य,पैसा, सम्पत्ति,पद, प्रतिष्ठा या किसी विशेष कार्य का दाईत्व मिल जाए तो अहंकार से फूलना नही चाहिए, दूसरों को स्वयं से छोटा नही समझना चाहिए बल्कि इसे प्रभु की कृपा मानकर हनुमान जी की तरह सदैव विनम्र रहना चाहिए। जो सर्व समर्थ होकर भी झुककर रहता है, वह सदैव प्रभु की कृपा का पात्र होता है।
पं. अंकित शर्मा