सन 1967 में तिहाड़ जेल में दुष्टों ने स्वामी जी पर आक्रमण किया था। इस हमले से उनके सिर पर चोट आई तथा नेत्रज्योति भी जाती रही। उपचार से कुछ प्रकाश तो आया, परंतु शिरोवेदना बनी रही।
सन 1981 में, 5 अप्रैल से नवरात्रारंभ पर आप रास पंचाध्यायी की कथा कर रहे थे। इसका आयोजन कानपुर के परेड मैदान में रामलीला कमेटी द्वारा हुआ था। उस समय आप पूर्णतः स्वस्थ थे। परंतु पाँचवें दिन, प्रतिदिन की भांति पूजा सम्पन्न कर, सायंकाल 5 बजे भिक्षा एवं विश्राम के उपरांत 6 से 8 बजे कथा होनी थी। सायं 4:30 बजे पूजन आरंभ हुआ। पट बंद थे। पाँच बजे के स्थान पर 5:30 हो गए। पूजनोपरांत शंखध्वनि नहीं हुई। ब्रह्मचारी ने जब देखा तो पाया कि आप तकिये के सहारे भगवान के पूजा-पात्र को पोंछ रहे थे।
• ब्रह्मचारी को देखकर आपने कहा —
“पुराने रोग ने आक्रमण किया है। सिर व गर्दन में पीड़ा है। सब कार्यक्रम रद्द कर काशी ले चलो।”
कार द्वारा काशी पहुँचे। वहाँ प्रातः 5 बजे समाधि लगाई। 21 दिन तक यही स्थिति रही। समाचार पूरे देश में फैल गया। हर ओर प्रार्थनाएँ होने लगीं। वैद्यराज पं. ब्रजमोहन दीक्षित जी द्वारा उपचार चल रहा था।
• कुछ समय बाद नेत्र खोलकर स्वामी जी ने कहा —
“हमें भागवत कथा सुनाओ।”
तब कीर्तन, रामायण, विष्णुसहस्रनाम, दुर्गासप्तशती, भागवत आदि का पाठ आरंभ हुआ। भक्ति के प्रसंग पर आपकी आँखों से निरंतर अश्रुधारा बहती थी। काशी के प्रसिद्ध रामायणी पं. श्यामनारायण जी शास्त्री से रामचरितमानस की कथा सुनने लगे।
• आपने कहा —
“रामचरितमानस में दशरथ-मरण का प्रसंग सुनाओ।”
उन्होंने हाथ जोड़कर कहा —
“मैं पूरी रामायण की कथा सुनाता हूँ, पर मुझसे राम-वनवास, दशरथ-मरण, लक्ष्मण-मूर्छा आदि प्रसंग कहे नहीं जाते।”
• स्वामी जी मुस्कराकर बोले —
“क्या ये रामायण में नहीं है? यह तो परम मंगलमय प्रसंग है। बिना ननु-नच किए, इसे ही सुनाओ।”
• पं. जी ने कहा —
“अनिष्ट की शंका से नहीं सुना रहा हूँ।”
स्वामी जी ने कहा —
“नहीं-नहीं, परम मंगलमय है। इसे ही सुनाओ।”
● विवश होकर उन्होंने कथा आरंभ की :---
“बन्दउँ अवध भुआल, सत्य प्रेम जेहि राम पद।
बिछुरत दीनदयाल, प्रिय तनु तृण इव परिहरेउ।।"
इस सोरठा से मंगलाचरण कर कथा आरंभ हुई। श्रोता व वक्ता दोनों ही अश्रुपूरित हो गए।
“मम गुन गावत पुलक शरीरा।
गदगद गिरा, नयन बह नीरा।।"
यह चौपाई प्रत्यक्ष चरितार्थ हो उठी।
“हा रघुनन्दन प्राण पिरीते।
तुम बिनु जिअत बहुत दिन बीते।।"
कथा पचास मिनट तक चली। इसके बाद नाक, आँख, कंठ ने साथ नहीं दिया, और कथा बंद करनी पड़ी।
● स्वामी जी ने आज्ञा दी —
“मेरा पार्थिव शरीर केदार घाट में ही विसर्जित किया जाए।”
● शरीर छोड़ने के चार दिन पूर्व श्रीमद्दण्डी स्वामी जगन्नाथानंद सरस्वती, श्री सर्वेश्वर ब्रह्मचारी, अखिलानंद ब्रह्मचारी आदि सेवा में आए। महारुग्ण अवस्था में भी भजन-पूजन पूर्ववत करते थे। अपने प्रिय शिष्य मार्कण्डेय ब्रह्मचारी को बुलाकर कहा —
“हमारा अपूर्ण कार्य तुम पूर्ण करना।”
आप त्रयोदशी तक स्वस्थ थे। चतुर्दशी को प्रातः स्नान कर लौटे। पूजनादि किया। इसके बाद आप ज़ोर-ज़ोर से श्रीसूक्त का पाठ करने लगे। ऊपर बने श्रीविद्या-यन्त्र के चित्र में दृष्टि केंद्रित थी। त्राटक लगाया। सर्वेश्वर ब्रह्मचारी तथा ब्रह्म चैतन्य को बुलाकर गंगाजल व तुलसीदल मुँह में डलवाया। पूरी सावधानी से आपने ग्रहण किया।
फिर आज्ञा दी कि ठाकुर जी और तुलसी आपके वक्षस्थल पर रखे जाएं। ऐसा ही किया गया। अंतिम समय तक चेतना बनी रही। फिर तीन बार "शिव-शिव-शिव" का उच्चारण कर लीला संवरण किया।
धर्म और अध्यात्म का प्रचंड सूर्य अस्त हो गया।
9 फरवरी 1982, मंगलवार प्रातः आपका पार्थिव शरीर केदार घाट पर दर्शनार्थ रखा गया। काशी के बाजार, विद्यालय, यहाँ तक कि मुस्लिम दुकानदारों ने भी दुकानें बंद कर दीं। काशी के डोमराज ने आकर याचना की। आपको दैनिक प्रयोग की वस्तुएं, वस्त्र, सिंहासन आदि उन्हें दिए गए। विधिविधान से जल-समाधि दी गई।
● पुरी पीठाधीश्वर जी ने स्वयं को अंतिम संस्कार का अधिकारी घोषित किया। स्नान कर पंचामृत व शुद्ध जल से स्नान कराके नवीन वस्त्र पहनाए। अंत में बोले —
“मैं ऐसे महात्मा का कपाल-छेदन नहीं कर सकता।”
केवल शंख से गंगाजल भर मस्तक पर स्पर्श किया।
● आपकी अंतिम इच्छा थी —
"मेरा शव काशी से बाहर न जाए।"
अतः लोहे की तारों से पत्थर की पेटी में बाँधकर शव को जकड़ दिया गया।
रविवार को जन्म और रविवार को ही ब्रह्मलीन।
{ श्रद्धांजलि }
▪️श्रृंगेरी पीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी अभिनव विद्यातीर्थ जी —
"स्वामी करपात्री जी ब्रह्मविद् थे और ब्रह्मविद्, ब्रह्मस्वरूप होता है। पचास वर्ष पूर्व देश में जितने धर्मानुरागी नहीं थे, उतने आज उनकी तपस्या से हैं।"
▪️गोवर्धन पीठाधीश्वर स्वामी निरंजन देव तीर्थ जी —
"पूज्यश्री के अंतिम संदेश—सनातन धर्म की रक्षा, गोहत्या रोकने, वर्णाश्रम की मर्यादा बनाए रखने के लिए, यदि जीवन भी देना पड़े तो खेद नहीं।"
▪️शारदा पीठाधीश्वर स्वामी अभिनव सच्चिदानंद तीर्थ जी —
"धर्मसम्राट ने भारतवर्षीय धर्मसंघ के माध्यम से सनातन धर्म की महती सेवा की। अनेक ग्रंथ रचे, यज्ञ, सम्मेलन व आंदोलनों से समाज को जाग्रत किया।"
▪️स्वामी अखंडानंद सरस्वती जी —
"स्वामी करपात्री जी लौकिक नहीं, सर्वथा दैवी प्रतिभा के धनी थे। राजनीति में भाग लेने पर भी धर्म और ब्रह्म के मर्मज्ञ थे।"
🔸️"करपात्री सूक्त" के अनुसार पाप क्या है?
"दूसरों की संपत्ति, स्त्री, या स्थिति से ईर्ष्या करना, उसका अपहरण करना — यही पाप है। अपने परिश्रम से हृष्ट-पुष्ट होना धर्म है।"
🔹️रामराज्य क्या है?
"नहीं दरिद्र कोउ दुखी न दीना, नहीं कोउ अबुध न लच्छन हीना।
सब नर करहीं परस्पर प्रीति, चलहीं स्वधर्म निरत श्रुति नीति।।"
सभी एक-दूसरे के पूरक, रक्षक, शुभचिंतक हों — यही धर्मराज्य है, रामराज्य है।
करपात्री जी का बहुआयामी व्यक्तित्व👉
● 1940 में अखिल भारतीय धर्मसंघ की स्थापना।
● 1948 में अखिल भारतीय रामराज्य परिषद की स्थापना, जिसने 1952 में 3 लोकसभा सीटें जीतीं।
● रामायणमीमांसा, वेदार्थपारिजात, श्रीविद्यारत्नाकर, भक्तिरसार्णव जैसे कालजयी ग्रंथ।
● 'मार्क्सवाद और रामराज्य', 'अहमर्थ और परमार्थसार' जैसे अनोखे ग्रंथ।
अंत में 👉
"मतयो यत्र गच्छन्ति तत्र गच्छन्ति वानराः।
शास्त्राणि यत्र गच्छन्ति तत्र गच्छन्ति ते नराः।।"
जहां तक बुद्धि चलती है, वहां तक वानर जाते हैं; शास्त्र के साथ जो चलता है, वही नर है।
■ प्रार्थना :---
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
धर्म की जय हो।
अधर्म का नाश हो।
प्राणियों में सद्भावना हो।
विश्व का कल्याण हो।
गौमाता की जय हो।
गौहत्या बंद हो।
भारत अखण्ड हो।
जय श्रीराम।
हर हर महादेव।
~ अनंतश्री विभूषित, यतिचक्र चूड़ामणि, अभिनवशंकर, सर्वभूतहृदय, स्वनामधन्य, हरिहरानंद सरस्वती
धर्मसम्राट स्वामी श्री करपात्री जी महाराज 🙏💐