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रेड कॉरिडोर का पतन: नक्सलवाद के अंत की ओर



 



 रिषि सूरी
कभी भारत के लिए सबसे गंभीर आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों में से एक माने जाने वाले नक्सलवाद का प्रभाव अब तेज़ी से घट रहा है। ‘रेड कॉरिडोर’—वह क्षेत्र जो वर्षों तक माओवादी हिंसा और भय का प्रतीक रहा—आज अपनी पुरानी छवि खो चुका है। दशकों तक फैली हिंसा, सशस्त्र संघर्ष और सरकारी संस्थानों के खिलाफ विद्रोह की इस कहानी का अंत निकट प्रतीत हो रहा है। यह बदलाव आकस्मिक नहीं है, बल्कि एक सुनियोजित और बहुआयामी रणनीति का परिणाम है जिसमें सुरक्षा बलों की दृढ़ कार्रवाई, विकास कार्यों की व्यापक पहुँच और स्थानीय समुदायों का बढ़ता सहयोग शामिल है।

एक समय था जब नक्सलवाद का प्रभाव लगभग 180 जिलों में फैला हुआ था। यह इलाके बिहार से लेकर छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र तक फैले हुए थे, जिन्हें मिलाकर ‘रेड कॉरिडोर’ कहा जाता था। यहां नक्सली समूहों का समानांतर शासन चलता था, सरकारी योजनाएं कागज़ पर ही रह जाती थीं और प्रशासन का प्रवेश केवल सुरक्षा बलों की टुकड़ियों के साथ ही संभव था। लेकिन 2025 तक आते-आते यह भूगोल सिकुड़कर मात्र 18 जिलों तक सीमित रह गया है।

2025 में अबुजहमर के जंगलों में हुई एक निर्णायक मुठभेड़ ने इस बदलाव को और तेज़ कर दिया। इस मुठभेड़ में CPI (माओवादी) के महासचिव नंबाला केशव राव के साथ 28 अन्य नक्सली मारे गए। नंबाला केशव राव जैसे शीर्ष नेतृत्व का मारा जाना नक्सलियों के लिए मनोबल तोड़ने वाला झटका था। यह पहली बार था जब इतने उच्च पद पर बैठे माओवादी नेता को सुरक्षा बलों ने मार गिराया। इस घटना के बाद संगठन की रणनीतिक दिशा बिखर गई और कई इलाकों में सक्रिय दस्ते नेतृत्वहीन हो गए। गृह मंत्री अमित शाह ने इस उपलब्धि को ऐतिहासिक करार देते हुए 2026 मार्च तक नक्सलवाद को पूरी तरह समाप्त करने का लक्ष्य घोषित किया।

हालांकि, इस सफलता के पीछे सिर्फ हथियारों की ताकत नहीं, बल्कि विकास और बुनियादी ढांचे की पहुँच भी एक महत्वपूर्ण कारण है। बीते वर्षों में सरकार ने नक्सल प्रभावित इलाकों में सड़कें, पुल, स्कूल, अस्पताल और मोबाइल टावर स्थापित करने पर विशेष जोर दिया। इससे न केवल सुरक्षा बलों की आवाजाही आसान हुई, बल्कि स्थानीय लोगों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के अवसर भी बढ़े। जहां पहले राज्य की मौजूदगी सिर्फ पुलिस चौकियों और ऑपरेशन रूम्स के रूप में दिखाई देती थी, वहीं अब विकास परियोजनाओं के रूप में भी महसूस होने लगी है।

इस बदलाव में स्थानीय समुदायों की भूमिका भी अहम रही। कई गांवों में युवाओं ने नक्सलवाद का विरोध करना शुरू किया और अपने गांवों को हिंसा से मुक्त घोषित किया। सुरक्षा बलों ने भी ‘हार्ट्स एंड माइंड्स’ अभियान चलाकर लोगों के साथ विश्वास का रिश्ता बनाया। कई पूर्व नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया और पुनर्वास योजनाओं के तहत सामान्य जीवन में लौट आए।

फिर भी, यह मान लेना जल्दबाज़ी होगी कि नक्सलवाद का खतरा पूरी तरह खत्म हो गया है। जिन कारणों से यह आंदोलन पनपा—जैसे आदिवासी विस्थापन, भूमि अधिकारों का हनन, सामाजिक और आर्थिक असमानता—वे समस्याएं अब भी मौजूद हैं। अगर इन्हें अनदेखा किया गया, तो असंतोष फिर से हिंसक रूप ले सकता है। इसलिए आवश्यक है कि सुरक्षा अभियानों के साथ-साथ सरकार न्यायपूर्ण विकास, स्थानीय भागीदारी और पारदर्शी प्रशासन पर जोर दे।

रेड कॉरिडोर का सिकुड़ना और नक्सली नेतृत्व का ध्वस्त होना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि भारत स्थायी शांति की दिशा में आगे बढ़ रहा है। लेकिन असली सफलता तब होगी जब इन इलाकों में हिंसा का अंत होने के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक विकास भी इस हद तक मजबूत हो कि नक्सलवाद की वापसी की कोई संभावना न रहे। एक सुरक्षित, समावेशी और न्यायपूर्ण व्यवस्था ही इस संघर्ष को स्थायी रूप से खत्म कर सकती है।

लेखक: रिषि सूरी, वरिष्ठ पत्रकार और ‘द डेली मिलाप’ के संपादक हैं, जो भारत का सबसे पुराना और बड़ा उर्दू अख़बार है।



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