समस्याओं के मकड़जाल में प्रदेश का अन्नदाता, ऐसे कैसे बनेगी खेती लाभ का धंधा ?
यूरिया संकट, न मात्र का बीमा क्लेम, नकली बीज-कीटनाशक जैसी दिक्कतों का सामना करते हुए किसानों को ठोस समाधान की आस
'सवाल उठता है कि आखिर कब तक किसानों को सिर्फ वादे और आश्वासन ही मिलते रहेंगे? जब खेती की बुनियादी जरूरतें ही पूरी नहीं होंगी, तो हम कृषि प्रधान राज्य और देश किस गर्व से कहेंगे?'
वीरेंद्र तिवारी, भोपाल
धरती का बेटा जब पसीना बहाता है, तो खेतों में अन्न उगता है। लेकिन जब उसकी ही मेहनत किसी कंपनी की लापरवाही, नकली खाद-बीज या बीमा कंपनियों के खेल की भेंट चढ़ जाए, तो यह सिर्फ फसल का नुकसान नहीं होता, बल्कि उसके सपनों, उसकी उम्मीदों और उसके जीवन की जड़ों पर वार होता है। प्रदेश के किसान इन दिनों ऐसी ही त्रासदी से गुजर रहे हैं। विदिशा, सीहोर, सागर के किसानों की हालत इसका ताजा उदाहरण है। जिस हर्बीसाइड से खेत की खरपतवार नष्ट होनी थी, उसी ने पूरी फसल ही चट कर दी। सैकड़ों हेक्टेयर की मेहनत बर्बाद हो गई। दबाव बना तो कंपनी ने मजबूरी में दस हजार रुपये प्रति एकड़ मुआवजा देने का प्रस्ताव रखा, लेकिन यह ऊंट के मुंह में जीरा है। किसान ने तो उससे कहीं ज्यादा लागत लगाई थी। उसकी मेहनत, उसके सपने और उसके परिवार की जरूरतें किसी आंकड़े में कैसे समा सकती हैं? सवाल यह है कि कंपनियों की इस लापरवाही की असली कीमत कौन चुकाएगा - किसान या सिस्टम? सरकार हर बार जांच बैठा देती है, एफआइआर दर्ज हो जाती है, कुछ अफसरों के बयान अखबारों में छपते हैं, लेकिन जमीन पर बदलाव नहीं आता। नकली खाद-बीज का कारोबार हर साल और बड़े पैमाने पर सामने आता है। यह सिर्फ किसानों की लूट नहीं है, बल्कि कृषि व्यवस्था पर सीधा हमला है।
इसी कड़ी में बीमा कंपनियों का खेल और ज्यादा चौंकाने वाला है। किसानों ने 3510 करोड़ रुपये प्रीमियम भरकर बीमा कराया, लेकिन क्लेम के नाम पर उन्हें महज 764 करोड़ रुपये मिले। यानी जिन कंपनियों ने किसानों की सुरक्षा का जिम्मा उठाया था, वही सबसे बड़ा फायदा उठा रही हैं। विधानसभा में पेश रिपोर्ट ने साफ कर दिया कि सिस्टम किसानों की जेब से पैसा खींचने का जरिया बन गया है। बीमा कंपनियां लाभ में हैं और किसान घाटे में। यह कैसा न्याय है? अभी हालही में हरदा, सीहोर, शिवपुरी सहित कई जिलों से ऐसे मामले आए जहां किसानों को बीमा क्लेम के रूप में पचास, सौ, दो सौ रुपए तक की राशि पहुंची है। यह तब है जब सरकार कई बार साफ कर चुकी है कि किसी भी किसानों को क्लेम की राशि 1 हजार रुपए से कम नहीं दी जाएगी। किसान अधिकारियों के पास चेक लौटाने जा रहे हैं, प्रदर्शन कर रहे हैं लेकिन कुछ नहीं हो रहा क्योंकि बीमा कंपनियों को सरकार का भी डर नहीं है।
जहां पर किसान नकली खाद-बीज के दंश से बचकर अपनी फसल उंगाने में कामयाब हो गया है वहां उसकी फसल अच्छा उत्पादन दे इसके लिए यूरिया खेत में फेंकना जरूरी होता है। लेकिन यूरिया की जितनी मांग है उतनी आपूर्ति नहीं है। नतीजा यूरिया संकट की तस्वीरें हर सीजन के जैसे इस बार भी कटाक्ष कर रही हैं। ग्वालियर चंबल हो या विंध्य महाकोशल या मालवा ही क्यों न हो, यूरिया के लिए किसानों की लंबी कतारें, रात-रात भर का इंतजार, धक्कामुक्की और कभी-कभी गंभीर विवाद, यह दृश्य हर साल के जैसा दोहराया जा रहा है। सवाल उठता है कि आखिर कब तक किसानों को सिर्फ वादे और आश्वासन ही मिलते रहेंगे? जब खेती की बुनियादी जरूरतें ही पूरी नहीं होंगी, तो हम कृषि प्रधान राज्य और देश किस गर्व से कहेंगे?
किसान संगठनों का कहना है कि अगर यही हाल रहा तो आने वाले सीज़न में कर्ज और घाटे से जूझते किसान आत्महत्या और पलायन को मजबूर होंगे। यह पूरा परिदृश्य बताता है कि किसान केवल मौसम की मार नहीं झेलता, बल्कि नीतियों की सुस्ती, सिस्टम की नाकामी और जिम्मेदारों की अनदेखी भी उसका पीछा नहीं छोड़ती। कंपनियां मुनाफा कमाती हैं, सरकारें आंकड़े गिनाती हैं और किसान हर बार अपनी ही मेहनत का बोझ ढोता रह जाता है। आज जरूरत है कि किसान को सिर्फ मुआवजे के भरोसे न छोड़ा जाए। असली जवाबदेही तय हो। नकली खाद-बीज बेचने वालों को कड़ी सजा मिले। बीमा कंपनियों को मजबूर किया जाए कि वे प्रीमियम के अनुपात में क्लेम दें। और सबसे बड़ी बात-सिस्टम को किसान के लिए संवेदनशील बनाया जाए। किसान का दर्द किसी आंकड़े में नहीं, बल्कि उसके आंसुओं में झलकता है। अगर इन आंसुओं को पोंछने की जिम्मेदारी सरकार और समाज नहीं लेंगे, तो इतिहास हमें माफ नहीं करेगा।
क्या गलत है और क्यों?
समस्या की जड़ सिर्फ आकस्मिक घटनाएं नहीं हैं; यह व्यवस्थागत कमजोरी है। निगरानी तंत्र कमजोर है, बीज-खाद के गुणवत्ता-नियंत्रण से लेकर बीमा क्लेम की पारदर्शिता तक कई स्तरों पर खामी है। बीमा कंपनियों और उनके एजेंट नेटवर्क की रिपोर्टिंग, खेत-स्तर पर सत्यापन के तरीके, तथा दावों के निपटान की प्रक्रियाएं अक्सर जटिल और धीमी रहती हैं। साथ ही, इनपुट सप्लाई चेन में केंद्रीकरण और ट्रैकिंग की कमी से उपलब्धता पर असर पड़ता है।
क्या कदम उठाए जाएं?
फास्ट-ट्रैक क्लेम मेकैनिज्म:
अतिवर्षा,सूखा या कीट संक्रमण जैसी आपदाओं के लिए 72-120 घंटे का फील्ड सत्यापन और तत्काल अग्रिम राहत वितरण। आत्मनिर्भरता के लिए तात्कालिक अग्रिम मुआवजा और बाद में फाइनल क्लेम समायोजन।
पारदर्शी बीमा आडिट: स्वतंत्र आडिट टीमों द्वारा बीमा कंपनियों के दावों और क्लेम अनुपात का सार्वजनिक आडिट; प्रीमियम-क्लेम अनुपात को मानक के अनुरूप रखना और कवरेज के मामले में छोटे किसानों को प्राथमिकता।
बीज-खाद की ट्रेसबिलिटी:
बार-कोड आधारित ट्रेसिंग से हर बैच की गुणवत्ता जानी जा सके; नकली उत्पाद पकड़े जाने पर कड़ी सजा और बिक्री नेटवर्क का सार्वजनिक ब्लैकलिस्टिंग।
स्थानीय भंडारण और वितरण: यूरिया के लिए क्षेत्रीय बफर स्टाक और डीसी-नोड्स ताकि आपूर्ति बाधित न हो; एलओजी-डेटा सार्वजनिक किया जाए।
फोरेन्सिक लैब नेटवर्क:
त्वरित फसल-नुकसान जांच के लिए नजदीकी लैब और मोबाइल टेस्ट किट; जिससे कंपनियों की जिम्मेदारी तय की जा सके।
किसान-सशक्त सूचना नेटवर्क: फोन, रियल-टाइम हेल्पलाइन, फसल-लाइव मानिटरिंग और किसान पंचायतों के माध्यम से शिकायतों का त्वरित निवारण।
(नवदुनिया से साभार)