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नर्क होते शहरों को नसीहत, आमजन की फजीहत

विजय मनोहर तिवारी, 
कुलगुरु, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल 

कुछ को छोड़ दें तो हमारे अधिकांश शहर धीरे-धीरे नर्क में बदल रहे हैं। घर से निकलते ही कष्ट कम नहीं हैं। बुनियादी ढाँचा चरमराया हुआ है। शहर आबादी के बोझ से उबल रहे हैं। ऑफिस टाइम में ट्रैफिक का भगवान मालिक है। 

चौराहे-तिराहे सहित अधिकांश मुख्य और अंदरुनी मार्गों की अपनी असल चौड़ाई का एक चौथाई ही वाहनों के लिए बचा है। तीन चौथाई दोनों तरफ नाजायज कब्जों में हैं। टीन-टप्पर, ठेले-गुमटी, झुग्गी-झोपड़ी की बाढ़ मध्यकाल के हमलावरों सी झपट रही है। हर दिन हजारों सड़क दुर्घटनाएँ ऐसी होती हैं, जो पुलिस के रिकॉर्ड में नहीं आ पातीं। अस्पताल भरे पड़े हैं।

बाजारों में गाड़ियाँ पार्क करना मुश्किल है। बेहिसाब रंगबिरंगे खतरनाक होर्डिंग ऐसे लगते हैं जैसे किसी के चेहरे पर गंदे स्टीकर चिपकाए हों। दो घंटे की तेज बारिश में जगह-जगह जाम में हजारों गाड़ियों का फँसना आम दृश्य हैं। बस अड्डों और रेलवे स्टेशनों के आसपास एक अलग ही दुनिया फैली हुई है! यह हमारे शहरों की रोजमर्रा की भोगी जाने वाली एक कटु सच्चाई है। 

तब अपनी राजनीतिक जीवन यात्रा के पहले पड़ाव पर हमारे नगरीय निकायों के निर्वाचित प्रतिनिधि क्या कर रहे हैं, क्या करना चाहिए, उनके क्या प्लान हैं, क्या दृष्टि है, है भी कि नहीं, यह देखना जरूरी है। मध्यप्रदेश में अंग्रेजी दैनिक "फ्री प्रेस' के 42 साल के प्रसंग पर अनायास ही यह सवाल और चिंताएँ रेखांकित हो गईं। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव, नगरीय विकास मंत्री कैलाश विजयवर्गीय, भोपाल के विधायक भगवानदास सबनानी की उपस्थिति में प्रदेश के अनेक महापौरों का सम्मान किया गया। निकायों के अनेक प्रतिनिधियों ने गुलदस्ते और स्मृति चिन्ह लेते हुए तस्वीरें खिंचवाईं।

देखा जाए तो इंदौर और उज्जैन को छोड़कर ज्यादातर शहरों का कबाड़ा है और राजधानी भोपाल एक भरापूरा कबाड़खाना। हालांकि सम्मानित महापौरों में भोपाल की मालती राय भी मंच पर थीं। भोपाल की हालत यह है कि सड़कें, चौक-चौराहे, फुटपाथ, पार्किंग ठेला-गुमटी माफिया के कब्जे में हैं। भोपाल तेजी से नर्क में बदल रहा है। एक तेज रफ्तार सर्जरी न की गई तो यह रहने लायक नहीं रहेगा। बीएचईएल के इलाके से निकलिए तो लगता है कि किसी और देश में आ गए। गनीमत है कि अतिक्रमण मुक्त और ऑक्सीजनयुक्त एक छोटा सा कोना बीएचईएल भोपाल में है और किसी की कुदृष्टि उस पर नहीं है। 

उज्जैन आज देश के धार्मिक पर्यटन मानचित्र पर चमक रहा है। डॉ. मोहन यादव महाकाल की इस विश्व प्रसिद्ध  नगरी से आते हैं। उन्होंने "फ्री प्रेस' के आमंत्रण पर नगरीय निकायों के कर्णधारों की एकमुश्त उपस्थिति देखकर सुझाया कि शहरों के बारे में विचार करने के लिए सबको एक बार जल्दी ही किसी मंच पर जरूर आना चाहिए ताकि भविष्य की जरूरतों  के अनुसार बेहतर जनजीवन की दिशा में मध्यप्रदेश में कुछ ठोस काम हो सकें। उन्होंने खजुराहो के संदर्भ में कहा कि वह अकेली ऐसी नगर परिषद है, जहाँ एयरपोर्ट है, विश्व विरासत है, रेलवे स्टेशन हैं। क्या हम अपने बाकी छोटे शहरों को ऐसा बना सकते हैं?

कैलाश विजयवर्गीय ने इंदौर नगर निगम में पार्षद के रूप में अपनी यात्रा शुरू की थी। वे इंदौर के महापौर भी रहे और जब 2003 में सरकार बनी तो केबिनेट मंत्री बने। इंदौर के महापौर पुष्यमित्र भार्गव सौभाग्यशाली हैं कि उन्हें सफाई में देश में नंबर वन शहर विरासत में मिला। 25 साल पहले जब वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय हुए थे और किसी ने स्मार्ट सिटी का नाम नहीं सुना था, तब कैलाश विजयवर्गीय ने आबादी के दबाव को देखते हुए सड़कों को चौड़ा करने का एक सघन अभियान शुरू किया था। कैलाशजी ने अपने अनुभव से कहा, "आज के जनप्रतिनिधियों को अगले 25 साल की जरूरतों के हिसाब से अपने शहरों के प्लान बनाने चाहिए।'

शहरों की इस दुर्गति में गाँवों से हो रहा अंतहीन पलायन सबसे बड़ा कारण है, जहाँ जनप्रतिनिधियों की एक तीन स्तरीय फौज ग्राम, जनपद और जिला पंचायत में पंच परमेश्वर बनकर बैठी है। विधायक और सांसदों की दो परतें हैं ही, जिनमें से अनेक मंत्रिमंडल में सुशोभित हैं। नौकरशाही की शाश्वत उपस्थिति के बावजूद गाँव वीरान होते गए हैं और शहरों का दम उखड़ा हुआ है तो इससे यही सिद्ध है कि या तो दाल में कुछ काला है या दाल ही काली है।
 
फ्री प्रेस के प्रसंग में शहरों के बहाने आम नागरिकों से जुड़ी एक ऐसी विकराल समस्या की ओर ध्यान गया है, जो 2047 के शक्तिशाली भारत के सपने की सबसे बड़ी अड़चन है। समय रहते शहरों की सर्जरी न की गई तो ध्यान रहे 140 करोड़ की आबादी अगले बीस साल में 200 करोड़ की ओर सरपट गति से जा रही होगी। तब हमारे गाँव किस हाल में होंगे और हमारे आज के बदहाल शहरों का और क्या होगा?

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